
परिवार की खुशी में खुद को खो देती हो,
पहला कौर गाय, दूजा ईश्वर, तीजा परिवार को देकर तुम खुद की थाली खाली रख लेती हो,
बच्चों के साथ खेलने में अक्सर तुम हारने का भाव रखती हो, मगर ध्यान रखना कि…
आस पास तुम्हारे सम्मान की किसी को फिक्र नहीं
परम्परा की बेड़ियां बांध कर, हर दुःख छुपाने का हुनर रखती हो !!
तुम्हारी पसंद-नापसंदगी की किसी को कद्र नहीं
तुम झोंक भी दोगी अगर खुदको इनकी खुशियों की खातिर
तुम्हारी छोटी सी गलती पर भी किसी को सब्र नहीं
तुम जिसकी लंबी उम्र की कामना के लिए… दिन भर से भूखी हो
भूख से ज्यादा तो तुम उसी के व्यवहार से दुखी हो,
आंखों में आसूं लेकर आखिर कब तक घुटन सहोगी तुम,
इस दो घर की लक्ष्मी की हालत किससे आकर कहोगी तुम,
न्याय मिलता खुद से ही तुमको, कभी तुम अपने पे अड़ी
ओ स्त्री यहां देख तुम्हारे सम्मान की किसी को पड़ी नहीं !!
उठ चल अब बहुत हुआ… हम भी आवाज़ उठाएंगे
अपने हक में बोलने से, अब हम नहीं कतराएंगे
इंसान है तो, इंसानियत की हदें हम बताएंगे,
ओ स्त्री चल उठ, अब हम भी आवाज़ उठाएंगे!!
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